Thursday, May 14, 2020

बुंदेलों का शासन

बुंदेल क्षत्रीय जाति के शासक थे तथा सुदूर अतीत में सूर्यवंशी राजा मनु से संबन्धित हैं। अक्ष्वाकु के बाद रामचन्द्र के पुत्र "लव' से उनके वंशजो की परंपरा आगे बढ़ाई गई है और इसी में काशी के गहरवार शाखा के कर्त्तृराज को जोड़ा गया है। लव से कर्त्तृराज तक के उत्तराधिकारियों में गगनसेन, कनकसेन, प्रद्युम्न आदि के नाम ही महत्वपूर्ण हैं।
कर्त्तृराज का गहरवार होना किसी घटना के आधार पर हैं जिसमें काशी में ऊपर ग्रहों की बुरी दशा के निवारणार्थ उसके प्रयत्नों में "ग्रहनिवार' संज्ञा से वह पुकारा जाने लगा था। कालांतर "ग्रहनिवार' गहरवार बन गया।
बनारस के राजाओं की अनेक समय तक सूर्यवंशी सूर्य-कुलावंतस काशीश्वर पुकारा जाता रहा है। इनकी परंपरा इस प्रकार है - कर्त्तृराज, महिराज, मूर्धराज, उदयराज, गरुड़सेन, समरसेन, आनंदसेन, करनसेन, कुमारसेन, मोहनसेन, राजसेन, काशीराज, श्यामदेव, प्रह्मलाददेव, हम्मीरदेव, आसकरन, अभयकरन, जैतकरन, सोहनपाल और करनपाल। करनपाल के तीन पुत्र थे - वीर, हेमकरण और अरिब्रह्म। करनपाल ने हेमकरन को अपने सामने ही गद्दी पर बैठाया था। इसे करनपाल की मृत्यु पर शेष दो भाईयों ने पदच्युत कर देश निकाला दे दिया था।
अपने भाइयों से त्रस्त होकर हेमकरन ने राजपुरोहित गजाधर से परामर्श लिया। उसने विन्धयवासिनी देवी की पूजा के लिए प्रेरित किया। मिर्जापुर में विन्ध्यवासिनी देवी की पूजा में चार नरबलियाँ दी गई, देवी प्रसन्न हुई और हेमकरन को वरदान दिया परंतु हेमकरन के भाईयों का अत्याचार हेमकरन के लिए अब भी कम नहीं हुआ। कालांतर में उसने एक और नरबलि देकर देवी को प्रसन्न किया। देवी नें पाँचों नरबलियों के कारण उसे पंचम की संज्ञा दी। इसके बाद वह विन्ध्यवासिनी का परम भक्त बन गया। जनसमाज में वह "पंचम विन्ध्येला' कहलाया। देवी द्वारा दिये गए वरदानों को ओरछा राज्य के इतिहास में विशेष महत्व दिया गया है।
एक अन्य कथा के अनुसार हेमकरन ने देवी के समक्ष अपनी गर्दन पर जब तलवार रखी और स्वयं की बलि देनी चाही तो देवी ने उसे रोक दिया परंतु तलवार की धार से हेमकरन के रक्त की पांच बूंदें गिर गई थीं इन्हीं के कारण हेमकरन का नाम पंचम बुंदेला पड़ा था। ओरथा दरबार के पत्र में अभी भी पूर्ववर्ती विरुद्ध के प्रमाण मिलते हैं जैसे - श्री सूर्यकुलावतन्स काशीश्वरपंचम ग्रहनिवार विन्ध्यलखण्डमण्लाहीश्वर श्री महाराजाधिराज ओरछा नरेश। चूंकि हेमकरन को विन्ध्यवासिनी देवी का वरदान रविवार को मिला था, ओरछा में आज भी पवरात्र महोत्सव में इस दिन नगाड़े बनाये जाते हैं। मिर्जापुर स्थित गौरा भी हेमकरन के बाद गहरवारपुरा के नाम से प्रसिद्ध है। इसके बाद का चक्र बड़ी तेजी से घूमा और वीरभद्र ने गदौरिया राजपूतों में अँटेर छीन लिया और महोनी को अपनी राजधानी बनाया। गढ़कुण्डार इसके बाद बुंदेलों की राजधानी बनी। वीरभद्र के पाँच विवाह और पाँच पुत्र प्रसिद्ध हैं - इनमें रणधीर द्वितीय रानी से, कर्णपाल तृतीय रानी से, हीराशी, हंसराज और कल्याणसिंह पँचम रानी से थे। वीरभद्र के बाद कर्णपाल (१०८७ ई० से १११२ ई०) गद्दी पर बैठा। उसकी चार पत्नियाँ थीं। प्रथम के कन्नारशाह, उदयशाह और जामशाह पैदा हुए। द्वितीय पत्नी से शौनक देव तथा नन्नुकदेव तथा चतुर्थ पत्नी से वीरसिंहदेव का जन्म हुआ।
कन्नारशाह (१११२ ई० - ११३० ई०), शौनकदेव (११३० ई०-११५२ ई०), नन्नुकदेव (११५२ई०-११६९ ई०) ओरछा की गद्दी पर क्रम से बैठे। इसके बाद वीरसिंह के पुत्र मोहनपति (११६९ ई०-११९७ ई०), अभयभूपति (११६९ ई०-१२१५ ई०) गद्दी पर आये। अर्जुनपाल अभयभूपति का पुत्र था। ये १२१५ ई० से १२३१ ई० तक गद्दी पर रहा। उसने तीन विवाह किए। दूसरी रानी से सोहनपाल का जन्म हुआ। यह ओरछा बसाने में विशेष सहायक माना जाता है।

ओरछा के बुंदेला

रुद्रप्रताप के साथ ही ओरछा के शासकों का युगारंभ होता है। वह सिकन्दर और इब्राहिम लोधी दोनों से लड़ा था। ओरछा की स्थापना मन १५३० में हुई थी। रुद्रप्रताप बड़ नीतिज्ञ था, ग्वालियर के तोमर नरेशों से उसने मैत्री संधी की। उसके मृत्यु के बाद भारतीचन्द्र (१५३१ ई०-१५५४ई०) गद्दी पर बैठा। हुमायूँ को जब शेरशाह ने पदच्युत करके सिंहासन कथियाया था तब उसने बुंदेलखंड के जतारा स्थान पर दुर्ग बनवा कर हिन्दु राजाओं को दमित करने के निमित्त अपने पुत्र सलीमशाह को रखा। कलिं का किला कीर्तिसिंह चन्देल के अधिकार में था। शेरशाह ने इस पर किया तो भारतीचन्द ने कीर्तिसिंह की सहायता ली। शेरशाह युद्ध में मारा गया और उसके पुत्र सलीमशाह को दिल्ली जाना पड़ा।
भारतीचन्द के उपरांत मधुकरशाह (१५५४ ई०-१५९२ ई०) गद्दी पर बैठा। इसके बाद समय में स्वतंत्र ओरछा राज्य की स्थापना हुई। अकबर के बुलाने पर जब वे दरबार में नहीं पहुँचा तो सादिख खाँ को ओरछा पर चढ़ाई करने भेजा गया। युद्ध में मधुकरशाह हार गए। मधुकरशाह के आठ पुत्र थे, उनमें सबसे ज्येष्ठ रामशाह के द्वारा बादशाह से क्षमा याचना करने पर उन्हें ओरछा का शासक बनाया गया। राज्य का प्रबन्ध उनके छोटे भाई इन्द्रजीक किया करते थे। केशवदास नामक प्रसिद्ध कवि इन्हीं के दरबार में थे।
इन्द्रजीत का भाई वीरसिंह देव (जिसे मुसलमान लेखकों ने नाहरसिंह लिखा है) सदैव मुसलमानों का विरोध किया करता था) उसे कई बार दबाने की चेष्टा की गई पर असफर ही रही। अबुलफज़ल को मारने में वीरसिंहदेव ने सलीम का पूरा सहयोग किया था, इसलिए वह सलीम के शासक बनते ही बुंदेलखंड का महत्वपूर्ण शासक बना। जहाँगीर ने इसकी चर्चा अपनी डायरी में की है।
वीरसिंह देव (१६०५ ई० - १६२७ ई०) के शासनकाल में ओरछा में जहाँगीर महल तथा अन्य महत्वपूर्ण मंदिर बने थे। जुझारसिंह ज्येष्ठ पुत्र थे, उन्हें गद्दी दी गई और षेष ११ भाइयों को जागीरें दी गई। सन् १६३३ ई० में जुझारसिंह ने गोड़ राजा प्रेमशाह पर आक्रमण करके चौरागढ़ जीता परंतु शाहजहाँ नें प्रत्याक्रमण किया और ओरछा खो बैठे। उन्हें दक्षिण की ओर भागना पड़ा। उनके कुमारों को मुसलमान बनाया गया तथा वे कहीं पर दक्षिण में ही मारे गये। वीरसिंह के बाद ओरछा के शासकों में देवीसिंह और पहाड़सिहं का नाम लिया जाता है परंतु ये अधिक समय तक राज न कर सके।
वीरसिंह के उपरांत चम्पतराय प्रताप का इतिहास प्रसिद्ध है। औरंगज़ेब की सहायता करने (दारा के विरुद्ध) पर उन्हें ओरछा से जमुना तक का प्रदेश जागीर में दिया गया था। दिल्ली दरबार के उमराव होते हुए भी चम्पतराय ने बुंदेलखंड को स्वाधीन करने का प्रयत्न किया और वे औरंगज़ेब से ही भीड़ गए। सन १६६४ में चम्पतराय ने आत्महत्या कर ली। ओरछा दरबार का प्रभाव यहाँ से शून्य हो जाता है।
पन्ना दरबार इसी के बाद छत्रसाल के नेतृत्व में उन्नति करता है। ओरछा गज़ेटियर के अनुसार मुगल शासकों नें चम्पतराय के परिवार को गद्दी न दी और जुझारसिंह के भाई पहाड़सिंह को शासक नियुक्त किया। ओरछा के परवर्ती शासकों ने सुजानसिंह (१६५३ ई०-१६७२ ई०), इन्द्रमीण (१६७२ ई०-१६७५ ई०), यशवंत सिंह (१६७५ ई०-१६८४ ई०), भगवंत सिंह (१६८४ ई० - १६८९ ई०), उद्दोतसिंह, दत्तक पुत्र (१६८९ ई०-१७३६ ई०), पृथ्वी सिंह (१७३६ ई०-१७५२ ई०), सावंत सिंह (१७५२ ई०-१७६५ ई०) तथा हतेसिंह विक्रमाजीत, धरमपाल, तेजसिंह, हमीरीसिंह, प्रतापसिंह के नाम प्रमुख हैं।
छत्रसाल ने बुंदेलखंड की स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने में अथक परिश्रम किया। औरंगज़ेब ने इन्हें भी दबाने की कोशिश की पर सफल न हुए। छत्रसाल ने कलिं को भी अपने अधिकार में किया। सन् १७०७ ई० सें औरंगज़ेब के मरने के बाद बहादुरगढ़ गद्दी पर बैठा। छत्रसाल से इसकी खूब बनी। इस समय मराठों का भी ज़ोर बढ़ गया था।
छत्रसाल स्वयं कवि थे। छत्तरपुर इन्हीं ने बसाया था। कलाप्रेमी और भक्त के रूप में भी इनकी ख्याती थी। धुवेला-महल इनकी भवन निर्माण-कला की स्मृति दिलाता है। बुंदेलखंड की शीर्ष उन्नति इन्हीं के काल में हुई। छत्रसाल की मृत्यु के बाद बुंदेलखंड राज्य भागों में बँट गया। एक भाग हिरदेशाह, दूसरा जगतराय और तीसरा पेशवा को मिला। छत्रसाल की मृत्यु १३ मई सन् १७३१ में हुई थी।
  • (क) प्रथम हिस्से में हिरदेशाह को पन्ना, मऊ, गढ़ाकोटा, कलिंजर, शाहगढ़ और उसके आसपास के इलाके मिले।
  • (ख) द्वितीय हिस्से में जगतराय को जैतपुर, अजयगढ़, जरखारी, बिजावर, सरोला, भूरागढ़ और बाँदा मिला।
  • (ग) बाजीराव को तीसरे हिस्से में कलपी, हटा, हृदयनगर, जालौन, गुरसाय, झाँसी, गुना, गढ़कोटा और सागर इत्यादि मिला।
अठारवीं शताब्दी में हिन्दुपत के वंशज सोनेशाह ने छत्तरपुर की स्थापना की। कृष्णकवि (पन्ना दरबार के राजकवि) ने इसे छत्रसाल द्वारा बसाया माना है। जबकि छत्तरपुर गजेटियर में इसे सोनोशाह का नाम ही दिया है। सोनेशाह के बाद छत्तरपुर राज्य में प्रतापसिंह, जगतराज और विश्वनाथसिंह आदि राजाओं ने शासन किया। सोनेशाह के समय में छत्तरपुर में अनेक महलों, तालाबों, मन्दिरों का निर्माण करवाया।

मराठों का शासन[संपादित करें]

छत्रसाल के समय से ही मराठों का शासन बुंदेलखंड पर प्रारंभ हो गया था। उस समय ओरछा का शासक भी मराठों को चौथ देता था। दिल्ली के मुसलमान शासकों द्वारा अराजकता फैलाने के कारण उत्तर भारत में धीमे-धीमे अंग्रेजी शासन फैलता जा रहा था। सन् १७५९ में अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध युद्ध में गोविन्दराव पतं मारे गए।
बुंदेलखंड में अंग्रेजों का आगमन हानिकारक सिद्ध हुआ। कर्नल वेलेजली ने सन् १७७८ में कलपी पर आक्रमण किया और मराठों को हराया। कालांतर में नाना फड़नवीस की सलाह में माधव नारायण को पेशवा बनाया गया तथा मराठों और अंग्रेजों में संधि हो गई।
हिम्मत बहादुर की सहायता से अंग्रेजों नें बुंदेलखंड पर कब्जा किया। सन् १८१८ ई० तक बुंदेलखंड के अधिकांश भाग अंग्रेजों के अधीन हो गए।

बुंदेलखंड मे राजविद्रोह[संपादित करें]

सन् १८४७ का वर्ष अंग्रेजों के लिए इसीलिए उत्तम सिद्ध हुआ था क्योंकि महाराज रणजीत सिंह का पुत्र उनके बाद पंजाब का राजा बनाया गया। लार्ड डलहौज़ी इस समय गवर्नर जनरल थे और उन्होंन दिलीपसिंह को अयोग्य शासक बताकर पंजाब पर कब्जा जमा लिया। शिवाजी के वंशज प्रतापसिंह को पुर्तगालियों से मिले रहने का आरोप लगा कर सतारा में कैद किया और दक्षिण का बाग अपने अधीन किया। झाँसी में गंगाधरराव की मृत्यु के बाद दामोदर राव को गोद लिया गया। लक्ष्मी बाई को हटाने के प्रयत्न भी जारी हो गए परंतु इसी समय १८५७ के विद्रोह की घटना घटी। बरहमपुर, मेरठ, दिल्ली, मुर्शीदाबाद, लखनऊ, इलाहाबाद, काशी, कानपुर, झाँसी में विद्रोह हुआ और कई स्थान पर उपद्रव हुए। झाँसी पर विद्रोहियों ने किले पर अपना अधिकार जमाया और रानी लक्ष्मीबाई ने किसी प्रकार युद्ध करके अपना अधिकार जमाया और रानी लक्ष्मीबाई कहलाई।
सागर की ४२ न० पलटन ने अंग्रेजी हुकूमत मानना अस्वीकार कर दिया। बानपुर के महाराज मर्दनसिंह ने अंग्रेजी अधिकार के परगनों पर कब्जा करना प्रारंभ कर दिया। खुरई का अहमदबख्श तहसीलदार भी मर्दनसिंह में मिल गया। ललितपुर, चंदेरी पर दोनों ने कब्जा किया। शाहगढ़ में बख्तवली ने अपनी स्वतंत्र सत्ता घोषित की। सागर की ३१ नं० पलटन चूंकि बागी न थी इसीलिए उसकी सहायता से मर्दनसिंह की मालथौन में डटी हुई सेना को हटाया गया, फिर ४२ नं० पलटन से युद्ध हुआ।
बख्तवली नें ३१ नं० पलटन ने शेखरमजान से मेल कर लिया विद्रोह की लहर, सागर, दमोह, जबलपुर आदि स्थानों में फैल गई। इस समय तक पन्ना के राजा की स्थिती मजबूत थी, अंग्रेजों ने उनसे सहायता माँगी। राजा ने तुरन्त सेना पहुँचाई और जबलपुर की ५२ नं० की पलटन को बुरी तरह दबा दिया गया। शनै: शनै: बख्तवली और मर्दनसिंह को नरहट की घाटी में सर हारोज ने पराजित किया। अंग्रेजी सेना झाँसी की ओर बढ़ती गई। झाँसी, कालपी में अंग्रेजों को डटकर मुकाबला करना पड़ा। रानी लक्ष्मी बाई दामोदर राव (पुत्र) को अपनी पीठ पर बाँधकर मर्दाने वेश में कालपी की ओर भाग गयी। इसके बाद झाँसी पर भी अंग्रेजों का अधिकार हो गया।
कालपी में एक बार फिर बख्तवली और मर्दनसिंह ने रानी के साथ मिलकर सर ह्यूरोज से युद्ध किया। यहाँ भी उसे पराजय हाथ लगी। वह ग्वालियर पहुँची और सिंधिया को हराकर वहाँ भी शासक बन बैठी पर सर ह्यूरोज ने ग्वालियर पर अचानक हमला किया। राव साहब पेशवा, तात्या टोपे का पराभव, रानी की मृत्यु आदि ने पूर्णत: विद्रोह की अग्नि को ठंडा कर दिया। बुंदेलखंड के सारे प्रदेश इस प्रकार अंग्रेजी राज्य में समा गए।
बुंदेलखंड का राजविद्रोह वास्तव में जनता का विद्रोह न होकर सामन्तों और सेना का विद्रोह था इसी पृष्ठभूमि में सांस्कृतिक और धार्मिक भावना के साथ साथ स्वामिभक्ति का पुट विशेष है। देश की सीमा वस्तुत: सामन्तो की जागीरों अथवा राज्यों की सीमायें थीं। सामन्तों का धर्म जनता का धर्म था अत: विद्रोहियों द्वारा देश पर कब्जा और धर्म का नाश असह्य था जिसे गोली में लगी चर्बी के बहाने हिन्दु और मुसलमानों दोनो ने व्यक्ति किया।
कल्याण सिंह कुड़रा ने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीर गाथा करते हुए लिखा है - चलत तमंचा तेग किर्च कराल जहां गुरज गुमानी गिरै गाज के समान।

तहाँ एकै बिन मध्यै एकै ताके सामरथ्यै, एकै डोलै बिन हथ्थै रन माचौ घमासान।।
जहाँ एकै एक मारैं एकै भुव में चिकारै, एकै सुर पुर सिधारैं सूर छोड़ छोड़ प्रान।
तहाँ बाई ने सवाई अंगरेज सो भंजाई, तहाँ रानी मरदानी झुकझारी किरवान।।

कवि ने रानी की वीरता का परिचय देते हुए कहा है कि रानी किस प्रकार वीरतापूर्वक शत्रु का सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त होती है।

अंग्रेजी राज्य में विलय[संपादित करें]

बुंदेलखडं की सीमायें छत्रसाल के समय तक अत्यंत व्यापक थीं, इस प्रदेश में उत्तर प्रदेश के झाँसी, हमीरपुर, जालौन, बाँदा, मध्यप्रदेश के सागर, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, मण्डला तथा मालवा संघ के शिवपुरी, कटेरा, पिछोर, कोलारस, भिण्ड, लहार और मोण्डेर के जिले और परगने शामिल थे। इस पूर भूभाग का क्षेत्रफल लगभग ३००० वर्गमील था। अंग्रेजी राज्य में आने से पूर्व बुंदेलखंड में अनेक जागीरें और छोटे छोटे राज्य थे। बुंदेलखंड कमिश्नरी का निर्माण सन् १८२० में हुआ। सन् १८३५ में जालौन, हमीरपुर, बाँदा के जिलों को उत्तर प्रदेश और सागर के जिले को मध्यप्रदेश में मिला दिया गया, जिसकी देख रेख आगरा से होती थी। सन् १८३९ में सागर और दामोह जिले को मिलाकर एक कमिश्नरी बना दी गई जिसकी देखरेख झाँसी से होती थी। कुछ दिनों बाद कमिश्नरी का कार्यालय झाँसी से नौगाँव आ गया। सन् १८४२ में सागर, दामोह जिलों में अंग्रेजों के खिलाफ बहुत बड़ आन्दोलन हुआ परंतु फूट डालने की नीति के द्वारा शान्ति स्थापित की गई। इसके बाद बुंदेलखंड का इतिहास अंग्रेजी साम्राज्य की नीतियों की ही अभिव्यक्ति करता है। अनेक शहीदों ने समय समय पर स्वतंत्रता के आन्दोलन छेड़े परंतु गाँदी जी जैसे नेता के आने से पहले कुछ ठोस उपलब्धि संभव न हुई।  

arun goutam


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