झांसी की रानी लक्ष्मीबाई जिनकी निडरता और शौर्य का वर्णन पूरे देश में गर्व के साथ किया जाता है। जिन्होंने अपने स्वाभिमान और देश के लिए प्राण निछावर कर दिए। क्या कोई बता सकता है कि उनकी मौत के बाद उनके बेटे का क्या हुआ। उनके बेटे की क्या किसी ने कोई मदद की। क्या उनके बेटे ने फिर से झांसी पर अधिकार प्राप्त करने के लिए कोई लड़ाई लड़ी। क्या उनके बेटे ने भी उन्हीं की तरह अंग्रेजो के खिलाफ कोई युद्ध लड़ा।
क्या लक्ष्मीबाई के बेटे युवराज दामोदर राव जिंदा रहने के लिए भीख मांगते थे
रानी लक्ष्मीबाई के निधन के बाद उनके दत्तक पुत्र दामोदर राव की रक्षा किसी ने नहीं की। अंग्रेजों ने झांसी पर कब्जा कर लिया था। दामोदर राव को तड़प-तड़प कर भूखों मरने के लिए छोड़ दिया गया। उस दौरान दामोदर राव गलियों में घुमते, जंगलो में जाते और भीख मांगकर अपना गुजारा करते थे।
लक्ष्मीबाई के बेटे दामोदर राव की मदद किसने की
इस तरह से काफी समय गुजर गया तभी वो नन्हे खान से संपर्क में आये। नन्हे खान ने उन्हें एक अंग्रेज अधिकारी मिस्टर फ्लिंक से मिलवाया। मिस्टर फ्लिंक जब मिले तो उन्हें सारी कहानी समझ आयी और उन्होंने महारानी विक्टोरिया के दरबार में सिफारिश लगाई जिसके बाद में उन्हें 200 रूपये प्रति माह की पेंशन मिलने लगी। जिससे उन्होंने अपना गुजारा चलाया।
लक्ष्मीबाई के बेटे दावेदार राव की मृत्यु कब और कहां हुई
दामोदर राव नेवालकर 5 मई 1860 को इंदौर पहुँचे। यहां उनकी चाची (जो दामोदर राव की असली मां थी क्योंकि रानी लक्ष्मीबाई ने दामोदर को गोद लिया था) ने उनका विवाह करवा दिया लेकिन कुछ समय बाद ही दामोदर राव की पहली पत्नी का निधन हो गया।दामोदर राव की दूसरी शादी से लक्ष्मण राव का जन्म हुआ। दामोदर राव का उदासीन तथा कठिनाई भरा जीवन 28 मई 1906 को इंदौर में समाप्त हो गया।
लक्ष्मीबाई के बेटे दामोदर राव के वंशज कहां है क्या करते हैं
अगली पीढ़ी में लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए। कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए। दामोदर राव चित्रकार थे उन्होंने अपनी माँ के याद में उनके कई चित्र बनाये हैं जो झाँसी परिवार की अमूल्य धरोहर हैं। लक्ष्मण राव तथा कृष्ण राव इंदौर न्यायालय में टाईपिस्ट का कार्य करते थे। अरूण राव मध्यप्रदेश विद्युत मंडल से बतौर जूनियर इंजीनियर 2002 में सेवानिवृत्त हुए हैं। उनका बेटा योगेश राव सॅाफ्टवेयर इंजीनियर है
झाँसी की रानी मृत्यु कैसे हुई ?
अंग्रेज़ों की तरफ़ से कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स पहला शख़्स था जिसने रानी लक्ष्मीबाई को अपनी आँखों से लड़ाई के मैदान में लड़ते हुए देखा.
उन्होंने घोड़े की रस्सी अपने दाँतों से दबाई हुई थी. वो दोनों हाथों से तलवार चला रही थीं और एक साथ दोनों तरफ़ वार कर रही थीं.
उनसे पहले एक और अंग्रेज़ जॉन लैंग को रानी लक्ष्मीबाई को नज़दीक से देखने का मौका मिला था, लेकिन लड़ाई के मैदान में नहीं, उनकी हवेली में.
जब दामोदर के गोद लिए जाने को अंग्रेज़ों ने अवैध घोषित कर दिया तो रानी लक्ष्मीबाई को झाँसी का अपना महल छोड़ना पड़ा था.
उन्होंने एक तीन मंज़िल की साधारण सी हवेली 'रानी महल' में शरण ली थी.
रानी ने वकील जॉन लैंग की सेवाएं लीं जिसने हाल ही में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ एक केस जीता था.
इमेज कॉपीरइटRISCHGITZ/GETTY IMAGESImage captionगवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग के कार्यकाल में ही 1857 का गदर हुआ था
'रानी महल' में लक्ष्मी बाई
लैंग का जन्म ऑस्ट्रेलिया में हुआ था और वो मेरठ में एक अख़बार, 'मुफ़ुस्सलाइट' निकाला करते थे.
लैंग अच्छी ख़ासी फ़ारसी और हिंदुस्तानी बोल लेते थे और ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रशासन उन्हें पसंद नहीं करता था क्योंकि वो हमेशा उन्हें घेरने की कोशिश किया करते थे.
जब लैंग पहली बार झाँसी आए तो रानी ने उनको लेने के लिए घोड़े का एक रथ आगरा भेजा था.
उनको झाँसी लाने के लिए रानी ने अपने दीवान और एक अनुचर को आगरा रवाना किया.
अनुचर के हाथ में बर्फ़ से भरी बाल्टी थी जिसमें पानी, बीयर और चुनिंदा वाइन्स की बोतलें रखी हुई थीं. पूरे रास्ते एक नौकर लैंग को पंखा करते आया था.
झाँसी पहुंचने पर लैंग को पचास घुड़सवार एक पालकी में बैठा कर 'रानी महल' लाए जहाँ के बगीचे में रानी ने एक शामियाना लगवाया हुआ था.
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मलमल की साड़ी
रानी लक्ष्मीबाई शामियाने के एक कोने में एक पर्दे के पीछे बैठी हुई थीं. तभी अचानक रानी के दत्तक पुत्र दामोदर ने वो पर्दा हटा दिया.
लैंग की नज़र रानी के ऊपर गई. बाद में रेनर जेरॉस्च ने एक किताब लिखी, 'द रानी ऑफ़ झाँसी, रेबेल अगेंस्ट विल.'
किताब में रेनर जेरॉस्च ने जॉन लैंग को कहते हुए बताया, 'रानी मध्यम कद की तगड़ी महिला थीं. अपनी युवावस्था में उनका चेहरा बहुत सुंदर रहा होगा, लेकिन अब भी उनके चेहरे का आकर्षण कम नहीं था. मुझे एक चीज़ थोड़ी अच्छी नहीं लगी, उनका चेहरा ज़रूरत से ज़्यादा गोल था. हाँ उनकी आँखें बहुत सुंदर थीं और नाक भी काफ़ी नाज़ुक थी. उनका रंग बहुत गोरा नहीं था. उन्होंने एक भी ज़ेवर नहीं पहन रखा था, सिवाए सोने की बालियों के. उन्होंने सफ़ेद मलमल की साड़ी पहन रखी थी, जिसमें उनके शरीर का रेखांकन साफ़ दिखाई दे रहा था. जो चीज़ उनके व्यक्तित्व को थोड़ा बिगाड़ती थी- वो थी उनकी फटी हुई आवाज़.'
बहरहाल कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स ने तय किया कि वो ख़ुद आगे जा कर रानी पर वार करने की कोशिश करेंगे.
लेकिन जब-जब वो ऐसा करना चाहते थे, रानी के घुड़सवार उन्हें घेर कर उन पर हमला कर देते थे. उनकी पूरी कोशिश थी कि वो उनका ध्यान भंग कर दें.
कुछ लोगों को घायल करने और मारने के बाद रॉड्रिक ने अपने घोड़े को एड़ लगाई और रानी की तरफ़ बढ़ चले थे.
उसी समय अचानक रॉड्रिक के पीछे से जनरल रोज़ की अत्यंत निपुण ऊँट की टुकड़ी ने एंट्री ली. इस टुकड़ी को रोज़ ने रिज़र्व में रख रखा था.
इसका इस्तेमाल वो जवाबी हमला करने के लिए करने वाले थे. इस टुकड़ी के अचानक लड़ाई में कूदने से ब्रिटिश खेमे में फिर से जान आ गई. रानी इसे फ़ौरन भाँप गईं.
उनके सैनिक मैदान से भागे नहीं, लेकिन धीरे-धीरे उनकी संख्या कम होनी शुरू हो गई.
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ब्रिटिश सैनिक
उस लड़ाई में भाग ले रहे जॉन हेनरी सिलवेस्टर ने अपनी किताब 'रिकलेक्शंस ऑफ़ द कैंपेन इन मालवा एंड सेंट्रल इंडिया' में लिखा, "अचानक रानी ज़ोर से चिल्लाई, 'मेरे पीछे आओ.' पंद्रह घुड़सवारों का एक जत्था उनके पीछे हो लिया. वो लड़ाई के मैदान से इतनी तेज़ी से हटीं कि अंग्रेज़ सैनिकों को इसे समझ पाने में कुछ सेकेंड लग गए. अचानक रॉड्रिक ने अपने साथियों से चिल्ला कर कहा, 'दैट्स दि रानी ऑफ़ झाँसी, कैच हर.'"
रानी और उनके साथियों ने भी एक मील ही का सफ़र तय किया था कि कैप्टेन ब्रिग्स के घुड़सवार उनके ठीक पीछे आ पहुंचे. जगह थी कोटा की सराय.
लड़ाई नए सिरे से शुरू हुई. रानी के एक सैनिक के मुकाबले में औसतन दो ब्रिटिश सैनिक लड़ रहे थे. अचानक रानी को अपने बायें सीने में हल्का-सा दर्द महसूस हुआ, जैसे किसी सांप ने उन्हें काट लिया हो.
एक अंग्रेज़ सैनिक ने जिसे वो देख नहीं पाईं थीं, उनके सीने में संगीन भोंक दी थी. वो तेज़ी से मुड़ीं और अपने ऊपर हमला करने वाले पर पूरी ताकत से तलवार लेकर टूट पड़ीं.
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राइफ़ल की गोली
रानी को लगी चोट बहुत गहरी नहीं थी, लेकिन उसमें बहुत तेज़ी से ख़ून निकल रहा था. अचानक घोड़े पर दौड़ते-दौड़ते उनके सामने एक छोटा-सा पानी का झरना आ गया.
उन्होंने सोचा वो घोड़े की एक छलांग लगाएंगी और घोड़ा झरने के पार हो जाएगा. तब उनको कोई भी नहीं पकड़ सकेगा.
उन्होंने घोड़े में एड़ लगाई, लेकिन वो घोड़ा छलाँग लगाने के बजाए इतनी तेज़ी से रुका कि वो क़रीब क़रीब उसकी गर्दन के ऊपर लटक गईं.
उन्होंने फिर एड़ लगाई, लेकिन घोड़े ने एक इंच भी आगे बढ़ने से इंकार कर दिया. तभी उन्हें लगा कि उनकी कमर में बाई तरफ़ किसी ने बहुत तेज़ी से वार हुआ है.
उनको राइफ़ल की एक गोली लगी थी. रानी के बांए हाथ की तलवार छूट कर ज़मीन पर गिर गई.
उन्होंने उस हाथ से अपनी कमर से निकलने वाले ख़ून को दबा कर रोकने की कोशिश की.
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रानी पर जानलेवा हमला
एंटोनिया फ़्रेज़र अपनी पुस्तक, 'द वॉरियर क्वीन' में लिखती हैं, "तब तक एक अंग्रेज़ रानी के घोड़े की बगल में पहुंच चुका था. उसने रानी पर वार करने के लिए अपनी तलवार ऊपर उठाई. रानी ने भी उसका वार रोकने के लिए दाहिने हाथ में पकड़ी अपनी तलवार ऊपर की. उस अंग्रेज़ की तलवार उनके सिर पर इतनी तेज़ी से लगी कि उनका माथा फट गया और वो उसमें निकलने वाले ख़ून से लगभग अंधी हो गईं."
तब भी रानी ने अपनी पूरी ताकत लगा कर उस अंग्रेज़ सैनिक पर जवाबी वार किया. लेकिन वो सिर्फ़ उसके कंधे को ही घायल कर पाई. रानी घोड़े से नीचे गिर गईं.
तभी उनके एक सैनिक ने अपने घोड़े से कूद कर उन्हें अपने हाथों में उठा लिया और पास के एक मंदिर में ले लाया. रानी तब तक जीवित थीं.
मंदिर के पुजारी ने उनके सूखे हुए होठों को एक बोतल में रखा गंगा जल लगा कर तर किया. रानी बहुत बुरी हालत में थीं. धीरे-धीरे वो अपने होश खो रही थीं.
उधर, मंदिर के अहाते के बाहर लगातार फ़ायरिंग चल रही थी. अंतिम सैनिक को मारने के बाद अंग्रेज़ सैनिक समझे कि उन्होंने अपना काम पूरा कर दिया है.
इमेज कॉपीरइटJHANSI.NIC.INImage captionझांसी का किला
दामोदर के लिए...
तभी रॉड्रिक ने ज़ोर से चिल्ला कर कहा, "वो लोग मंदिर के अंदर गए हैं. उन पर हमला करो. रानी अभी भी ज़िंदा है."
उधर, पुजारियों ने रानी के लिए अंतिम प्रार्थना करनी शुरू कर दी थी. रानी की एक आँख अंग्रेज़ सैनिक की कटार से लगी चोट के कारण बंद थी.
उन्होंने बहुत मुश्किल से अपनी दूसरी आँख खोली. उन्हें सब कुछ धुंधला दिखाई दे रहा था और उनके मुंह से रुक-रुक कर शब्द निकल रहे थे, "....दामोदर... मैं उसे तुम्हारी... देखरेख में छोड़ती हूँ... उसे छावनी ले जाओ... दौड़ो उसे ले जाओ."
बहुत मुश्किल से उन्होंने अपने गले से मोतियों का हार निकालने की कोशिश की. लेकिन वो ऐसा नहीं कर पाई और फिर बेहोश हो गईं.
मंदिर के पुजारी ने उनके गले से हार उतार कर उनके एक अंगरक्षक के हाथ में रख दिया, "इसे रखो... दामोदर के लिए."
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रानी का पार्थिव शरीर
रानी की साँसे तेज़ी से चलने लगी थीं. उनकी चोट से ख़ून निकल कर उनके फेफड़ों में घुस रहा था. धीरे-धीरे वो डूबने लगी थीं. अचानक जैसे उनमें फिर से जान आ गई.
वो बोलीं, "अंग्रेज़ों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए." ये कहते ही उनका सिर एक ओर लुड़क गया. उनकी साँसों में एक और झटका आया और फिर सब कुछ शांत हो गया.
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने प्राण त्याग दिए थे. वहाँ मौजूद रानी के अंगरक्षकों ने आनन-फ़ानन में कुछ लकड़ियाँ जमा की और उन पर रानी के पार्थिव शरीर को रख आग लगा दी थी.
उनके चारों तरफ़ रायफ़लों की गोलियों की आवाज़ बढ़ती चली जा रही थी. मंदिर की दीवार के बाहर अब तक सैकड़ों ब्रिटिश सैनिक पहुंच गए थे.
मंदिर के अंदर से सिर्फ़ तीन रायफ़लें अंग्रेज़ों पर गोलियाँ बरसा रही थीं. पहले एक रायफ़ल शांत हुई... फिर दूसरी और फिर तीसरी रायफ़ल भी शांत हो गई.
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चिता की लपटें
जब अंग्रेज़ मंदिर के अंदर घुसे तो वहाँ से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी. सब कुछ शांत था. सबसे पहले रॉड्रिक ब्रिग्स अंदर घुसे.
वहाँ रानी के सैनिकों और पुजारियों के कई दर्जन रक्तरंजित शव पड़े हुए थे. एक भी आदमी जीवित नहीं बचा था. उन्हें सिर्फ़ एक शव की तलाश थी.
तभी उनकी नज़र एक चिता पर पड़ी जिसकीं लपटें अब धीमी पड़ रही थीं. उन्होंने अपने बूट से उसे बुझाने की कोशिश की.
तभी उसे मानव शरीर के जले हुए अवशेष दिखाई दिए. रानी की हड्डियाँ क़रीब-क़रीब राख बन चुकी थीं.
इस लड़ाई में लड़ रहे कैप्टन क्लेमेंट वॉकर हेनीज ने बाद में रानी के अंतिम क्षणों का वर्णन करते हुए लिखा, "हमारा विरोध ख़त्म हो चुका था. सिर्फ़ कुछ सैनिकों से घिरी और हथियारों से लैस एक महिला अपने सैनिकों में कुछ जान फूंकने की कोशिश कर रही थी. बार-बार वो इशारों और तेज़ आवाज़ से हार रहे सैनिकों का मनोबल बढ़ाने का प्रयास करती थी, लेकिन उसका कुछ ख़ास असर नहीं पड़ रहा था. कुछ ही मिनटों में हमने उस महिला पर भी काबू पा लिया. हमारे एक सैनिक की कटार का तेज़ वार उसके सिर पर पड़ा और सब कुछ समाप्त हो गया. बाद में पता चला कि वो महिला और कोई नहीं स्वयं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई थी."
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तात्या टोपे
रानी के बेटे दामोदर को लड़ाई के मैदान से सुरक्षित ले जाया गया. इरा मुखोटी अपनी किताब 'हीरोइंस' में लिखती हैं, "दामोदर ने दो साल बाद 1860 में अंग्रेज़ों के सामने आत्म समर्पण किया. बाद में उसे अंग्रेज़ों ने पेंशन भी दी. 58 साल की उम्र में उनकी मौत हुई. जब वो मरे तो वो पूरी तरह से कंगाल थे. उनके वंशज अभी भी इंदौर में रहते हैं और अपने आप को 'झाँसीवाले' कहते हैं."
दो दिन बाद जयाजीराव सिंधिया ने इस जीत की खुशी में जनरल रोज़ और सर रॉबर्ट हैमिल्टन के सम्मान में ग्वालियर में भोज दिया.
रानी की मौत के साथ ही विद्रोहियों का साहस टूट गया और ग्वालियर पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो गया.
नाना साहब वहाँ से भी बच निकले, लेकिन तात्या टोपे के साथ उनके अभिन्न मित्र नवाड़ के राजा ने ग़द्दारी की.
तात्या टोपे पकड़े गए और उन्हें ग्वालियर के पास शिवपुरी ले जा कर एक पेड़ से फाँसी पर लटका दिया गया.
गौतम जी
Tuesday, May 19, 2020
झाँसी के प्रमुख दर्श्नीय स्थल
झांसी किला
झांसी का किला उत्तर प्रदेश ही नहीं भारत के सबसे बेहतरीन किलों में एक है। ओरछा के राजा बीर सिंह देव ने यह किला 1613 ई. में बनवाया था। किला बंगरा नामक पहाड़ी पर बना है। किले में प्रवेश के लिए दस दरवाजे हैं। इन दरवाजों को खन्देरो, दतिया, उन्नाव, झरना, लक्ष्मी, सागर, ओरछा, सैनवर और चांद दरवाजों के नाम से जाना जाता है। किले में रानी झांसी गार्डन, शिव मंदिर और गुलाम गौस खान, मोती बाई व खुदा बक्श की मजार देखी जा सकती है। यह किला प्राचीन वैभव और पराक्रम का जीता जागता दस्तावेज है।
रानी महल
रानी लक्ष्मीबाई के इस महल की दीवारों और छतों को अनेक रंगों और चित्रकारियों से सजाया गया है। वर्तमान में किले को संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है। यहां नौवीं से बारहवीं शताब्दी की प्राचीन मूर्तियों का विस्तृत संग्रह देखा जा सकता है। महल की देखरख भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा की जाती है।
झांसी संग्रहालय
झांसी किले में स्थित यह संग्रहालय इतिहास में रूचि रखने वाले पर्यटकों का मनपसंद स्थान है। यह संग्रहालय केवल झांसी की ऐतिहासिक धरोहर को ही नहीं अपितु सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड की झलक प्रस्तुत करता है। यहां चन्देल शासकों के जीवन से संबंधित अनेक जानकारियां हासिल की जा सकती हैं। चन्देल काल के अनेक हथियारों, मूर्तियों, वस्त्रों और तस्वीरों को यहां देखा जा सकता है।
महालक्ष्मी मंदिर
झाँसी के राजपरिवार के सदस्य पहले श्री गणेश मंदिर जाते थे जहा पर रानी मणिकर्णिका और श्रीमंत गंगाधर राव नेवालकर की शादी हुई फिर इस महालक्ष्मी मंदिर जाते थे। 18 वीं शताब्दी में बना यह भव्य मंदिर देवी महालक्ष्मी को समर्पित है। यह मंदिर लक्ष्मी दरवाजे के निकट स्थित है।यह देवी आज भी झाँसी के लोगो की कुलदेवी है क्योंकि आदी अनादि काल से यह प्रथा रही है कि जो राज परिवार के कुलदेवी और कुलदैवत होते है वही उस नगरवासियों के कुलदैवत होते है तो झाँसी वालो के मुख्य अराध्य देव गणेशजी और आराध्य देवी महालक्ष्मी देवी है। झाँसी के राजपरिवार के ये कुल देवता है।
गंगाधर राव की छतरी
लक्ष्मी ताल में महाराजा गंगाधर राव की समाधि स्थित है। 1853 में उनकी मृत्यु के बाद महारानी लक्ष्मीबाई ने यहां उनकी याद में यह स्मारक बनवाया।
गणेश मंदिर
Ganesh temple .
भगवान गणेश को समर्पित इस मंदिर में महाराज गंगाधर राव और वीरांगना लक्ष्मीबाई का विवाह हुआ था। यह भगवान गणेश का प्राचीन मंदिर है। जहा हर बुधवार को सैकड़ो भक्त दर्शन का लाभ लेते है। यहाँ पर प्रत्येक माह की गणेश चतुर्थी को प्रातः काल और सायं काल अभिषेक होता है। साधारणतः यहाँ सायं काल के अभिषेक में बहुत भीड़ होती है। ऐसी मान्यता है कि इस गणेश मूर्ति के इक्कीस दिन इक्कीस परिक्रमा लगाने से अप्रत्यक्ष लाभ होता है और मनोकामनाये पूर्ण होती है। झांसी के नजदीकी पर्यटन स्थलों में ओरछा, बरूआ सागर, शिवपुरी, दतिया, ग्वालियर, खजुराहो, महोबा, टोड़ी फतेहपुर, आदि भी दर्शनीय स्थल हैं।
निकटतम दर्शनीय स्थल
सुकमा-डुकमा बाँध : बेतवा नदी पर बना हुआ यह अत्यन्त सुन्दर बाँध है। इस् बाँध कि झॉसी शहर से दूरि करीब् ४५ कि॰मी॰ है तथा यह बबीना शहर के पास है।
देवगढ् : झॉसी शहर से १२३ कि॰मी॰ दूर यह शहर ललितपुर के पास् है। यहां गुप्ता वंश के समय् के विश्नु एवं जैन मन्दिर देखे जा सकते हैं।
ओरछा : झॉसी शहर से १८ कि॰मी॰ दूर यह स्थान् अत्यन्त् सुन्दर मन्दिरो, महलों एवं किलो के लिये जाना जाता है।
खजुराहो : झॉसी शहर से १७८ कि॰मी॰ दूर यह स्थान् १० वी एवं १२ वी शताब्दि में चन्देला वंश के राजाऔ द्वारा बनवाये गये अपने श्रृंगारात्मक मन्दिरो के लिये प्रसिद्ध है।
दतिया : झॉसी शहर से २८ कि॰मी॰ दूर यह राजा बीर सिह द्वारा बनवाये गये सात मन्जिला महल एवं श्री पीतम्बरा देवी के मन्दिर के लिये प्रसिद्ध है।
शिवपुरी : झॉसी से १०१ कि॰मी॰ दूर यह शहर ग्वालियर के सिन्धिया राजाऔ की ग्रीष्म्कालीन राजधानी हुआ करता था। यह शहर सिन्धिया द्वारा बनवाये गये संगमरमर के स्मारक के लिये भी प्रसिद्ध है। यहां का माधव राष्ट्रिय उध्यान वन्य जीवन से परिपूर्ण है।
बरुआ सागर झील और किला के बारे में
यह जगह झाँसी से 21 किमी दूर खजुराहो मार्ग पर स्तिथ है। बरुआ सागर एक ऐतिहासिक स्थान है, यहाँ 1744 में पेशवा के सैनिकों और बुंदेलों के बीच युद्ध लडा गया था। यहाँ महाराजा महादजी सिंधिया के बड़े भाई जोती भाऊ को मार दिया गया था। इस जगह का नाम एक विशाल झील बरुआ सागर ताल के नाम पर है जो ओरछा के राजा उदित सिंह द्वारा नदी पर बाँध बनाये जाने के दौरान लगभग 260 साल पहले बन गया था । बाँध की संरचना वास्तुकला और अभियांत्रिकी का एक अनूठा उदाहरण है। उनके द्वारा बनाया गया एक पुराना किला ऊँचाई पर सुंदरता से स्थित है जहाँ से किला झील और आसपास के परिदृश्य का एक उत्कृष्ट नज़ारा प्रस्तुत होता है। झील के उत्तर-पूर्वी हिस्से में ग्रेनाइट से बने दो पुराने चंदेल मंदिरों के खंडहर हैं, इनमें से पुराने का नाम घुघुआ को मठ है।
कालपी के बारे में
यह जगह झाँसी से 142 किमी दूर जालौन जिले में है। कालपी का नाम 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के साथ जुड़ा हुआ है। इस स्थान में मंत्रणा कक्ष, व्यास टीला मंदिर, नया व्यास मंदिर और लंका मीनार जैसे कुछ प्रसिद्ध आकर्षक जगह हैं।
समथर किला के बारे में
समथर झाँसी से 70 किमी. दूर और मोंठ तहसील से 13 किमी. दूर स्थित रियासत है। यह स्थान पूर्व में "समशेरगढ़" के नाम से जाना जाता था, अब इसे "समथर" कहा जाता है। यह जगह 17वीं और 18वीं सदी के महान गुर्जर योद्धाओं की स्वतंत्र रियासत थी। दतिया राज्य के राज्यपाल चंद्रभान बार गुजर, उनके पोते मदन सिंह को समथर किले के स्वतंत्र राज्य के निर्माण का श्रेय दिया जाता है। किले के अंदर प्रदर्शित ग्लाइडेड (सरकने वाली) पालकियाँ यहाँ का एक प्रमुख आकर्षण है। यहां जूदेववंशी राजा आज भी मौजूद है।
तालबेहट और माताटीला के बारे में
तालबेहट की मानसरोवर झील झाँसी-ललितपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर झाँसी से लगभग 50 किलोमीटर दूर स्थित है। झील के किनारे पर राजा मर्दन सिंह का किला और हजारिया महादेव मंदिर है। बेतवा नदी पर बना माताटीला जलाशय यहाँ से 10 किमी दूर है और परिवार के पिकनिक के लिए एक आदर्श स्थान है। मंदिर के निकट नौका विहार और मनोरंजन के लिए जगह है
गढमऊ झील के बारे में
गढमऊ झील एक 14 किमी लंबी झील है, यह झाँसी से 12 किलोमीटर दूर राष्ट्रीय राजमार्ग 25 पर है। झील के चारों तरफ स्थित छोटी-छोटी पहाड़ियाँ इसे एक लोकप्रिय पिकनिक स्थल बनाती है। यहाँ शानदार सूर्योदय और सूर्यास्त भी देखा जा सकता है ।
सुकवा ढुकवा झरना/बाँध के बारे में
यह झरना झाँसी से 39 किमी दूर है। सकवा धुकवा का झरना 1909 में बेतवा नदी पर बना था। बरसात के मौसम में 1 किमी. चौडे झरने का अद्भुत नजारा देख सकते हैं। इस जगह पर झरने के पीछे बेतवा नदी के नीचे एक सुरंग है
केदारेश्वर (मऊरानीपुर) के बारे में
यह एक पहाड़ी पर स्थित झाँसी से 70 किमी.दूर है । यहाँ पत्थर की 600 सीढियाँ हैं जो पहाड़ी के ऊपर स्थित मंदिर तक पहुँचती हैं। इस स्थान पर भगवान शिव के नंदी वृषभ की पीठ पर शिव लिंग स्थित है।
टोड़ी-फतेहपुर किला के बारे में
झांसी से 12 कि.मी. दूर स्तिथ 5 एकड़ क्षेत्र में फैला यह किला लगभग खंडहर है। यह किला एक पहाड़ी पर बनाया गया है और तीन बडी पत्थर की दीवारों से घिरा है। यह स्थान 4 मुख्य भागों में विभाजित है, सबसे पुराना और सबसे ऊपरी "गुसैनमहल", दूसरा "रनिवास", तीसरा "राजगढ़ महल" और चौथा" रंगमहल पैलेस" है। रंगमहल पैलेस दीवारों और छतों पर पेंटिंग के साथ सुशोभित एक शानदार चार मंजिला इमारत है।
रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारत की स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम वनिता थीं।
नागरिकता
भारतीय
अन्य जानकारी
रानी लक्ष्मीबाई का बचपन में 'मणिकर्णिका' नाम रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। विवाह के बाद इनका नाम 'लक्ष्मीबाई' हुआ।
भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई वास्तविक अर्थ में आदर्श वीरांगना थीं। सच्चा वीर कभी आपत्तियों से नहीं घबराता है। प्रलोभन उसे कर्तव्य पालन से विमुख नहीं कर सकते। उसका लक्ष्य उदार और उच्च होता है। उसका चरित्र अनुकरणीय होता है। अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह सदैव आत्मविश्वासी, कर्तव्य परायण, स्वाभिमानी और धर्मनिष्ठ होता है। ऐसी ही थीं वीरांगना लक्ष्मीबाई। महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी में 19 नवंबर 1835 को हुआ। इनके पिता मोरोपंत ताम्बे चिकनाजी अप्पा के आश्रित थे। इनकी माता का नाम भागीरथी बाई था। महारानी के पितामह बलवंत राव के बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक होने के कारण मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहने लगी। लक्ष्मीबाई अपने बाल्यकाल में मनुबाई के नाम से जानी जाती थीं।
इधर सन् 1838 में गंगाधर राव को झांसी का राजा घोषित किया गया। वे विधुर थे। सन् 1850 में मनुबाई से उनका विवाह हुआ। सन् 1851 में उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। झांसी के कोने-कोने में आनंद की लहर प्रवाहित हुई, लेकिन चार माह पश्चात उस बालक का निधन हो गया।
सारी झांसी शोक सागर में निमग्न हो गई। राजा गंगाधर राव को तो इतना गहरा धक्का पहुंचा कि वे फिर स्वस्थ न हो सके और 21 नवंबर 1853 को चल बसे। यद्यपि महाराजा का निधन महारानी के लिए असहनीय था, लेकिन फिर भी वे घबराई नहीं, उन्होंने विवेक नहीं खोया। राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंगरेजी सरकार को सूचना दे दी थी। परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया।
27 फरवरी 1854 को लार्ड डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तकपुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकृत कर दी और झांसी को अंगरेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। पोलेटिकल एजेंट की सूचना पाते ही रानी के मुख से यह वाक्य प्रस्फुटित हो गया, 'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी'। 7 मार्च 1854 को झांसी पर अंगरेजों का अधिकार हुआ। झांसी की रानी ने पेंशन अस्वीकृत कर दी व नगर के राजमहल में निवास करने लगीं।
यहीं से भारत की प्रथम स्वाधीनता क्रांति का बीज प्रस्फुटित हुआ। अंगरेजों की राज्य लिप्सा की नीति से उत्तरी भारत के नवाब और राजे-महाराजे असंतुष्ट हो गए और सभी में विद्रोह की आग भभक उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने इसको स्वर्णावसर माना और क्रांति की ज्वालाओं को अधिक सुलगाया तथा अंगरेजों के विरुद्ध विद्रोह करने की योजना बनाई।
नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल, अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, स्वयं मुगल सम्राट बहादुर शाह, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह और तात्या टोपे आदि सभी महारानी के इस कार्य में सहयोग देने का प्रयत्न करने लगे।
भारत की जनता में विद्रोह की ज्वाला भभक गई। समस्त देश में सुसंगठित और सुदृढ रूप से क्रांति को कार्यान्वित करने की तिथि 31 मई 1857 निश्चित की गई, लेकिन इससे पूर्व ही क्रांति की ज्वाला प्रज्ज्वलित हो गई और 7 मई 1857 को मेरठ में तथा 4 जून 1857 को कानपुर में, भीषण विप्लव हो गए। कानपुर तो 28 जून 1857 को पूर्ण स्वतंत्र हो गया। अंगरेजों के कमांडर सर ह्यूरोज ने अपनी सेना को सुसंगठित कर विद्रोह दबाने का प्रयत्न किया।
उन्होंने सागर, गढ़कोटा, शाहगढ़, मदनपुर, मडखेड़ा, वानपुर और तालबेहट पर अधिकार कियाऔर नृशंसतापूर्ण अत्याचार किए। फिर झांसी की ओर अपना कदम बढ़ाया और अपना मोर्चा कैमासन पहाड़ी के मैदान में पूर्व और दक्षिण के मध्य लगा लिया।
लक्ष्मीबाई पहले से ही सतर्क थीं और वानपुर के राजा मर्दनसिंह से भी इस युद्ध की सूचना तथा उनके आगमन की सूचना प्राप्त हो चुकी थी। 23 मार्च 1858 को झांसी का ऐतिहासिक युद्ध आरंभ हुआ। कुशल तोपची गुलाम गौस खां ने झांसी की रानी के आदेशानुसार तोपों के लक्ष्य साधकर ऐसे गोले फेंके कि पहली बार में ही अंगरेजी सेना के छक्के छूट गए।
रानी लक्ष्मीबाई ने सात दिन तक वीरतापूर्वक झांसी की सुरक्षा की और अपनी छोटी-सी सशस्त्र सेना से अंगरेजों का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया। रानी ने खुलेरूप से शत्रु का सामना किया और युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया।
वे अकेले ही अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव को कसकर घोड़े पर सवार हो, अंगरेजों से युद्ध करती रहीं। बहुत दिन तक युद्ध का क्रम इस प्रकार चलना असंभव था। सरदारों का आग्रह मानकर रानी ने कालपी प्रस्थान किया। वहां जाकर वे शांत नहीं बैठीं।
उन्होंने नाना साहब और उनके योग्य सेनापति तात्या टोपे से संपर्क स्थापित किया और विचार-विमर्श किया। रानी की वीरता और साहस का लोहा अंगरेज मान गए, लेकिन उन्होंने रानी का पीछा किया। रानी का घोड़ा बुरी तरह घायल हो गया और अंत में वीरगति को प्राप्त हुआ, लेकिन रानी ने साहस नहीं छोड़ा और शौर्य का प्रदर्शन किया।
कालपी में महारानी और तात्या टोपे ने योजना बनाई और अंत में नाना साहब, शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह आदि सभी ने रानी का साथ दिया। रानी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और वहां के किले पर अधिकार कर लिया। विजयोल्लास का उत्सव कई दिनों तक चलता रहा लेकिन रानी इसके विरुद्ध थीं। यह समय विजय का नहीं था, अपनी शक्ति को सुसंगठित कर अगला कदम बढ़ाने का था।
सेनापति सर ह्यूरोज अपनी सेना के साथ संपूर्ण शक्ति से रानी का पीछा करता रहा और आखिरकार वह दिन भी आ गया जब उसने ग्वालियर का किला घमासान युद्ध करके अपने कब्जे में ले लिया। रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में भी अपनी कुशलता का परिचय देती रहीं। 18 जून 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ और रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया। वे घायल हो गईं और अंततः उन्होंने वीरगति प्राप्त की। रानी लक्ष्मीबाई ने स्वातंत्र्य युद्ध में अपने जीवन की अंतिम आहूति देकर जनता जनार्दन को चेतना प्रदान की और स्वतंत्रता के लिए बलिदान का संदेश दिया।